उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों की बढ़ती आहट के बीच जातीय गोलबंदी की नई-नई पटकथाएं रची जा रही हैं। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव में जाति हिस्सेदारी की बात खुले तौर पर पूरी तरह रोक लगा रखी है, इसलिए चुनावों में समस्त सियासी पार्टियां एवं उनके नेतागण जातीय राजनीति की बातें खुले मंच से करने से बच रहे हैं।
वरिष्ठ नागरिक उमाशंकर शर्मा के अनुसार देखने को मिल रहा है कि ब्राह्मण समाज को लुभाने के नाम पर प्रबुद्ध समाज के बैनर का इस्तेमाल हो रहा है तथा ब्रह्मर्षि समाज की चिंतन बैठक के नाम पर भूमिहार और ब्राह्मण समाज को एक करने की भी कोशिश हो रही है।
शर्मा ने बताया कि विभिन्न जातियों के नेतागण अपनी राजनीतिक सौदेबाजी को मजबूत बनाने के लिए ऐसा प्रयास करते हुए दिखाई दे रहे हैं। इसके अतिरिक्त समाज व्यवस्था में तकरीबन समान स्तर वाले जाति समूहों को एक साथ लाकर अपनी संख्या बढ़ाने की तैयारी भी हो रही हैं। यह प्रक्रिया कुछ जाति समूहों में अगले चरण में पहुँचती हुई दिखाई दे रही है।
इसके तहत ही सामान स्तर की कुछ जातियां अपनी जाति नामों को बुलाकर एक होने की कोशिश में भी हैं। उनमें आपस में रोटी आउट बेटी के सम्बन्ध को बढ़ावा देने की भी चर्चा शुरू हो गई है।
इसी सन्दर्भ में सामाजिक कार्यकर्ता दीप शर्मा का कहना था कि अक्टूबर माह में उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ियाबाद जिले में हुई एक सभा में गुर्जर – जाट और यादव जाति समाज को एक साथ लाने का भी ऐलान किया गया है। वैसे दिवंगत किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत पहले ही कह चुके हैं कि तीनों जातियां एक जैसी हैं तथा तीनों के गोत्र लगभग एक सामान हैं इसलिए उन्हें एक हो जाना चाहिए। जातीय गोलबंदी के जरिये सियासी फायदा उठाने वाले दलों की बहुत चर्चा भी हो चुकी है। हालांकि यह उम्मीद एक बार टूट चुकी है, क्योंकि जातियों में आपसी द्वंद्व चलता रहता है और इसका असर कई बार खूनी संघर्ष के रूप में भी दिखा है।
समाजवादी आंदोलन के मुखिया स्व0 राम मनोहर लोहिया ने सवर्ण समाज के बरक्स पिछड़े समाज को एक करने के लिए नारा दिया था जिसकी वजह से ही समूची समाजवादी सियासत पिछड़े वर्ग के जनाधार पर केंद्रित होती गई। हालांकि पिछड़ी जातियों में इससे आपसी एका होने या एक दूसरे में समाहित होने की अभी कोई कहानी सामने नहीं आई है, बल्कि पिछड़ों में यादव – कुर्मी जैसी जातियां जरूर राजनीतिक रूप से ताकतवर होती गईं। शायद इसी को देखते हुए बिहार में एक दौर में पंच फोरना जातियों की भी कल्पना की गई और उन्हें एक मंच पर लाकर राजनीतिक ताकत बनाने की कोशिश हुई, हालांकि इन पार्टियों के पास लोकतान्त्रिक व्यवस्था को प्रभावित करने के लिए समुचित संख्या बल नहीं था।
अब देखना यह है कि जातियों को साथ लाने का यह नया प्रयोग कहाँ तक सफल होता है, क्योंकि उत्तर प्रदेश का भी बिहार की तरह जातीय संघर्ष का इतिहास रहा है।